Thursday, April 21, 2011

हे प्रिय सुनो !

हे प्रिय सुनो !





आज पूरे सत्य को





और छोड़ दो ग्लानि





मुझे स्वीकार न करने की





अगर कोई हो तो





हे प्रिय !





मुझे दुःख है कि





बिना जाने ही मैंने





तुम्हें





इजहार कर दिया





पर प्रिय





मुझे वो भाव





प्रेम ही जान पड़ा था





हे प्रिय !





सुना था कि





मित्रता प्रेम में बदलती है





पर





यहाँ थोड़ा





अलग हुआ





मेरी मित्रता और प्रेम ने





तुम्हारे लिए





साथ ही जन्म लिया





और मैंने इसे





प्रथम दृष्टिय प्रेम मान लिया





बिना तुम्हें नज़दीक से जाने ही





क्योंकि प्रेम यही होता है





ऐसा सुना था





पर प्रिय !





फिर मैंने तुम्हें जाना





धीरे धीरे





और प्रेम परास्त हो गया





एवं हमारी मित्रता





गहरी होती चली गयी





परिचय के साथ साथ





हे प्रिय !





माफ़ करना कि





तुम्हें लेकर





मैंने जीवन के स्वप्न संजोये





पर प्रिय





अब लगता है कि





मेरे जीवन का लक्ष्य तुम नहीं हो





माफ़ करना प्रिय





तुम्हें जीवन संगिनी समझा





पर प्रिय





अब तुम्हें जीवन भर की





सखी समझता हूँ





और विश्वास करो प्रिय





यह भाव मुझे





अधिक संतुष्ट करता है





बजाय उसके





जो तुम्हें बिना जाने ही





बुन लिए थे मैंने





पर प्रिय





इस रिश्ते को मत तोड़ना





तुम प्रिय थी





प्रिय हो





एवं सदैव रहोगी





पर हमारा प्रेम





साख्य भाव का है





न कि काम भाव का





कृष्ण राधा न सही





पर कृष्ण कृष्णा की तरह





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