Wednesday, October 6, 2010

बाहर पानी बरस रहा है

बाहर पानी बरस रहा है

और यहाँ भीतर , कुछ दरक रहा है

दरक रहे हैं वो सपने

जो खुली पलकों से देखे थे

दरक रहे हैं विश्वास

जो बंद मुट्ठी में थमे थे

दरकने लगी है वो श्रद्धा

जो कलाई पर बंधी थी

दरक रही है वो मोलियाँ

जो रक्षासूत्र बनी थी

दरक रहे वो दर्पण

जिन्होंने दूजी ही दुनिया दिखाई थी

दरक रही है वो सरगम

जो कभी हमने गाई थी

दरक रहे हैं एनिकेट

जिन्होंने प्रवाह रोंका था

दरक रहे वो बंधन

जो हमको उन्मुक्त छोड़े थे

दरकने लगे हैं शब्द

जो लिखने के लिए थे

दरक रही वो कविता

जो सहर में बनी थी

बाहर पानी बरस रहा है

यहाँ भीतर कुछ दरक रहा है

पानी सिर्फ बाहर नहीं

अन्दर भी छलक रहा है

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